Next Story
Newszop

अमेरिका और चीन के बीच समझौता क्या भारत के लिए बुरी ख़बर है?

Send Push
Thomas Peter-Pool/Getty Images

जब भारत 'दुनिया की फ़ैक्ट्री' बनने के अपने सपने को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ रहा था, तभी अमेरिका और चीन क़रीब आ गए.

दोनों देशों ने पटरी से उतरे अपने आपसी कारोबार को ठीक करने के लिए रीसेट बटन दबा दिया. इससे दुनिया में चीन की जगह 'मैन्युफ़ैक्चरिंग हब' बनने के भारत के अरमानों पर पानी फिर सकता है.

पिछले सप्ताह अमेरिका का चीन के साथ व्यापार समझौता हो गया है. अमेरिकी राष्ट्रपति ने जेनेवा में हुए इस समझौते की घोषणा की थी.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन पर टैरिफ़ की दर 145% से घटकर 30% कर दी.

जबकि भारत के लिए यह दर 27% है. क्योंकि यह भारत और अमेरिका के बीच स्विट्जरलैंड में हुए एक समझौते पर आधारित है.

भारत को मिल रहे निर्यात ऑर्डर में बढ़ोत्तरी image EPA चीन और अमेरिका के बीच टैरिफ़ को कम करने पर समझौता हो गया है

दिल्ली स्थित थिंक टैंक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इंस्टीट्यूट (जीटीआरआई) के अजय श्रीवास्तव का मानना है कि इस समझौते के बाद से भारत में मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर में होने वाला निवेश या तो रुक जाएगा या चीन की ओर डायवर्ट हो जाएगा.

उनका कहना है, "अब भारत में कम लागत वाले असेंबलिंग प्लान्ट तो सर्वाइव कर सकते हैं लेकिन वैल्यू एडेड ग्रोथ ख़तरे में है."

पिछले महीने ही एपल ने संकेत दिए थे कि वो अमेरिका को भेजे जाने वाले ज़्यादातर आईफ़ोन का प्रोडक्शन चीन से भारत ट्रांसफ़र कर रहा है.

ऐसा अभी भी हो सकता है, भले ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा हो कि उन्होंने एपल के सीईओ टिम कुक को भारत में निर्माण ना करने की सलाह दी.

ट्रंप ने इसके पीछे कारण बताते हुए कहा, "भारत दुनिया में सबसे अधिक टैरिफ लगाने वाले देशों में से एक है."

कैपिटल इकॉनॉमिक्स के अर्थशास्त्री शिलान शाह ने अमेरिका और चीन के बीच समझौते की घोषणा से पहले एक इन्वेस्टर नोट में लिखा था, "भारत अमेरिका का सप्लायर बनने के रूप में चीन का विकल्प बन सकता है."

उन्होंने कहा, "अमेरिका को भारत ने जो 40% सामान निर्यात किए वो चीन से अमेरिका निर्यात होने वाले सामान जैसे ही थे."

इस बात के शुरुआती संकेत मिल रहे थे कि चीनी उत्पादकों के गैप को भरने के लिए भारतीय निर्यातक आगे आ रहे हैं. भारतीय निर्माताओं के एक हालिया सर्वे के मुताबिक़ भारत का निर्यात ऑर्डर 14 सालों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है.

जापानी ब्रोकिंग हाउस नोमुरा ने भी संकेत दिया कि भारत इलेक्ट्रॉनिक्स, टेक्सटाइल्स और खिलौनों जैसे सेक्टर्स में विजेता के तौर पर उभर रहा है.

कुछ विश्लेषकों का मानना है कि चीन और अमेरिका के बीच कथित "ट्रेड रीसेट" के बावजूद, चीन और अमेरिका के बीच एक बड़ी रणनीतिक दूरी लंबे समय में भारत के लिए फ़ायदेमंद होगी.

एक बात यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार विदेशी कंपनियों के लिए अपने दरवाज़े खोलने के लिए अब ज़्यादा तैयार दिखती है जो भारत के लिए फ़ायदेमंद हो सकता है.

'भारत का मैन्युफैक्चरिंग उद्योग- उम्मीद से कम सफल' image Reuters

भारत और अमेरिका एक ट्रेड डील पर बात कर रहे हैं जो भारत के लिए बेहद फ़ायदेमंद साबित हो सकती है क्योंकि कई बड़ी बड़ी कंपनियां अपनी अपनी सप्लाई चेन में विविधता लाने के लिए चीन छोड़कर दूसरे देशों का रुख़ कर रही हैं.

भारत ने हाल ही में ब्रिटेन के साथ भी एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किया है, जिसके तहत व्हिस्की और ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्रों के टैरिफ़ में भारी कटौती की गई है. इससे इस बात का संकेत मिलता है कि भारत अमेरिका के साथ चल रही व्यापार वार्ता में अमेरिका को भी भारी रियायत दे सकता है.

लेकिन भारत के लिए इन सभी उम्मीदों को दूसरे नज़रिए से भी देखने की ज़रूरत है.

नोमुरा की अर्थशास्त्री सोनल वर्मा और अरुदीप नंदी ने इस महीने की शुरुआत में एक नोट में कहा था, "चीन एक बार फिर से इस रेस में शामिल हो गया है और कंपनियों के रडार में वियतनाम जैसे दूसरे एशियाई देश भी शामिल हैं."

उनके मुताबिक़ "भारत को इस अवसर का लाभ उठाने के लिए, ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस पॉलिसी को और बेहतर करते रहने की ज़रूरत है ताकि किसी भी टैरिफ़ संबंधी समस्या से निपटा जा सके."

भारत में कारोबार के लिए माकूल माहौल ना होने के कारण विदेशी निवेशकों को लंबे समय से हताशा का सामना करना पड़ा है और इसने भारत के मैन्युफ़ैक्चरिंग ग्रोथ के रास्ते में रुकावट डाली है. यही वजह है कि देश की जीडीपी में इस सेक्टर की हिस्सेदारी 20 साल से क़रीब 15% पर ही अटकी हुई है.

भारत की मौजूदा मोदी सरकार की यानी पीएलआई योजना जैसे प्रयासों से इस आंकड़े को बढ़ाने की कोशिश की है, लेकिन इसमें बहुत कम सफलता मिल पाई है.

प्रोडक्शन लिंक्ड इनिशिएटिव भारत सरकार की एक प्रोत्साहन योजना है, जिसके तहत तय शर्तें पूरी करने पर कंपनियों को इंसेटिव दिया जाता है, ताकि बड़ी वैश्विक कंपनियों को भारत में उत्पादन करने के लिए आकर्षित किया जा सके.

सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग ने स्वीकार किया कि चीन को छोड़कर किसी दूसरे देश में निवेश करने को इच्छुक कंपनियों को आकर्षित करने में भारत को सीमित कामयाबी ही मिल पाई है.

इसने कहा है कि सस्ते श्रम, आसान टैक्स कानून, कम टैरिफ़ और कारगर फ्री ट्रेड समझौते जैसी वजहों ने वियतनाम, थाईलैंड, कंबोडिया और मलेशिया जैसे देशों को निर्यात बढ़ाने में मदद की, जबकि इस मामले में भारत पीछे रह गया.

नोमुरा का कहना है कि एक अन्य प्रमुख चिंता यह है कि आईफ़ोन जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल और इसके पार्ट्स के लिए भारत की चीन पर निर्भरता बनी हुई है. इसलिए सप्लाई चेन में बदलाव का पूरा लाभ उठाने की भारत की क्षमता सीमित हो रही है.

image Prakash Singh/Bloomberg via Getty Images एपल के सीईओ टिम कुक दिल्ली में (फ़ाइल फ़ोटो) भारत की औद्योगिक नीति कितनी सफल

ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इंस्टीट्यूट (जीटीआरआई) के अजय श्रीवास्तव ने बीबीसी को बताया, "आईफ़ोन बनाने से भारत की आय तभी बढ़ेगी जब ज़्यादातर फ़ोन स्थानीय स्तर पर बनाए जाएंगे."

उनके अनुसार, अभी एपल अमेरिका में बेचे गए हर आईफ़ोन पर 450 डॉलर से अधिक कमाता है, जबकि इसमें भारत को 25 डॉलर से भी कम मिलता है. हालांकि भारतीय निर्यात के तौर पर पूरे एक हज़ार डॉलर को गिना जाता है, यानी फ़ोन की पूरी क़ीमत. मतलब कहा ये जाएगा कि भारत ने हज़ार डॉलर का निर्यात किया, जबकि भारत को उस पर हासिल होंगे महज़ 25 डॉलर या उससे भी कम.

श्रीवास्तव ने कहा, "भारत में और अधिक आईफ़ोन असेंबल करने से तब तक कोई ख़ास मदद नहीं मिलेगी, जब तक कि एपल और उसके सप्लायर्स यहां फ़ोन के पार्ट्स बनाना और उत्पादन से जुड़े ज़्यादा महत्वपूर्ण काम करना शुरू नहीं कर देते."

अभी भारत में आईफ़ोन के पार्ट्स नहीं बनते बल्कि अलग-अलग देशों से आए पार्ट्स को यहां असेंबल करके आईफ़ोन बनाया जाता है.

उनका कहना है, "इसके बिना, भारत का हिस्सा छोटा ही रहेगा और निर्यात के आंकड़े केवल कागजों पर ही बढ़ेंगे, जिससे संभवतः अमेरिका की ओर से और ज़्यादा जांच-पड़ताल शुरू हो जाएगी, जबकि भारत को कोई वास्तविक आर्थिक लाभ नहीं होगा."

का कहना है कि फ़ोन की ऐसी असेंबली लाइनों की वजह से पैदा रोज़गार भी बहुत उच्च गुणवत्ता वाला नहीं हैं.

अजय श्रीवास्तव कहते हैं, "नोकिया ने साल 2007 में चेन्नई में एक कारखाना स्थापित किया था, जहाँ सप्लायर्स भी एक साथ चले गए थे. लेकिन उसके विपरीत आज के स्मार्टफ़ोन निर्माता भारत में सप्लाई चेन बनाने के बजाय ज़्यादातर पुर्जे आयात करते हैं और कम टैरिफ़ की मांग करते हैं."

उन्होंने कहा कि, कुछ मामलों में तो किया गया निवेश भारत की पीएलआई योजना के तहत मिली सब्सिडी से भी कम हो सकता है.

इसलिए अंत में इस बात को लेकर चिंता है कि चीनी निर्यातक, अमेरिका में अपने प्रोडक्ट भेजने के लिए भारत का इस्तेमाल कर सकते हैं.

हालांकि भारत इस विचार के खिलाफ़ नहीं लगता, भले ही इसमें कई खामियाँ हों. देश के शीर्ष आर्थिक सलाहकार ने पिछले साल कहा था कि देश में निर्यात आधारित फै़क्ट्री लगाने और देश की मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री को बढ़ावा देने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा चीनी बिज़नेस को आकर्षित करना चाहिए. ये एक प्रकार से इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि भारत की ख़ुद औद्योगिक नीतियां पूरी तरह से सफल नहीं रही हैं.

लेकिन विशेषज्ञ आगाह करते हैं कि इस तरह की योजना से भारत अपना ख़ुद का औद्योगिक आधार विकसित करने में पिछड़ जाएगा.

यह सब दिखाता है कि एपल जैसी कंपनियों की सुर्खियां बटोरने वाली घोषणाओं के अलावा, भारत अभी भी देश में फ़ैक्टरियां स्थापित करने की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने से बहुत दूर है.

अजय श्रीवास्तव ने सोशल मीडिया पोस्ट में भारत में पॉलिसी बनाने वालों से आग्रह किया, "उत्पादन लागत में कटौती करें, लॉजिस्टिक्स को ठीक करें और रेग्युलेटर से जुड़े मसलों को ठीक करें."

उनके मुताबिक़, "एक बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि अमेरिका और चीन के बीच ताजा समझौता उनके नुक़सान को कंट्रोल करने के लिए है, न कि दीर्घकालिक समाधान के लिए. भारत को दीर्घकालिक योजना पर काम करना चाहिए, नहीं तो उसे ख़ुद के किनारे कर दिए जाने का ख़तरा उठाना होगा."

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

image
Loving Newspoint? Download the app now