Next Story
Newszop

लर्निंग पावर्टी से जूझते भारतीय स्कूलों को दे रहे नई दिशा, बच्चों को सिखाई जा रही है स्किल्स जो भविष्य गढ़ेगी

Send Push
संदीप राय

लंबे समय से भारत की शिक्षा व्यवस्था क्वालिटी यानि गुणवत्ता के संकट से दो चार हो रही है। अगर देखा जाए, तो पिछले दो दशकों में कई बार ऐसी स्टडीज़ हुई, जिससे आम इंसान भी पूरी तरह से सहमी होंगे। इसके तहत शिक्षा के मामले में देश के आधे से अधिक छात्र सीखने के मामले में गरीबी यानि लर्निंग पावर्टी का सामना कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में समझाएं, तो भारत के स्कूलों में 16 करोड़ से अधिक छात्र उस स्तर पर पहुँच गए हैं जहाँ वे अब भी कुछ भली भांति समझ नहीं पाते है। ऐसा लगता है कि मानो वे स्कूल में नहीं हैं।



वर्तमान की वास्तविकता केवल संख्याओं तक सीमित नहीं हैं। ये आने वाले समय में उद्धृत जनसांख्यिकीय लाभांश यानि आयु के हिसाब से अर्थव्यवसथा में होने वाली वृद्धि को प्रभावित करता है। अगर देखा जाए, तो केवल एक छोटी सी समय सीमा है, जिसके अंर्तगत हमारी आबादी युवा बनी रहेगी। अगर देश के युवाओं के एक बड़े हिस्से को शिक्षित नहीं किया जाएगा, तो हम बहुत आगे नहीं बढ़ पाएंगे। दुनिया भर से एकत्रित किए गए आंकड़ों की मानें, तो कम शैक्षिक प्राप्ति स्तर वाले वयस्कों की उत्पादकता कम होती है और वे कम उम्र तक ही जीवित रहते हैं।




अब सवाल ये उठता है कि क्या इसका दायरा बहुत कम है और इसे बहुत देर हो चुकी है। अगर भारत अपने महत्वाकांक्षी 2047 के लक्ष्यों, जिसके तहत समृद्धि और आत्मनिर्भरता पर आधारित एक दृष्टिकोण को पाना चाहता है, तो हमें एक बड़ी छलांग लगानी होगी। याद रखें कि आगे का रास्ता भी उतना सीधा नहीं हो सकता। साथ ही इस बात को भी हमेशा याद रखें कि हमारा राष्ट्र हमारी कक्षाओं और स्कूलों में ही बनकर तैयार होगा। अगर वाकई भारत को बड़ी छलांग लगानी है, तो इसका मतलब ये है कि इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए स्कूलों को ही इसका नेतृत्व करना होगा।



स्कूल सिस्टम को छलांग लगानी चाहिए का वास्तिविक अर्थ क्या है। इसे समझने के लिए हमें उस चीज़ की नींव फिर से रखनी होगी जिसे स्कूल कहा जाता हैं। हमें यह सोचने का साहस दिखाना होगा कि छात्र क्यों, क्या और कैसे सीख रहे हैं। इस बात को भी समझना होगा कि वास्तव में वर्तमान काल में स्कूलों में ऐसे कौशल सिखाए जा रहे हैं जो आज के भारत से संबधित हैं। इसके लिए सबसे पहले कक्षाओं में ब्लैकबोर्ड के सामने अक्ष्याप्क का बैठकर पढ़ाना और छात्रों का उस पाठ को सुनने की व्यवस्था को खत्म करना होगा। हमें इससे पहले इस बात पर फोकस करना होगा कि वाकई में कौन पढ़ा रहा है। 60 बरसों से शिक्षकों की भूमिका और छात्र के जीवन में उनका रोल ज्यों का त्यों बना हुआ है। अब ये समय उस रोल को रीबूट करने का है।



देश भर में ऐसे बहुत से स्कूल हैं जो इस बात को दर्शा रहे हैं कि हमारे आसपास शिक्षा के जगत में क्या कुछ संभव हो सकता है। सबसे पहले बात करते हैं लद्दाख की, जहां विलेज लैब फ़ाउंडेशन में यंग उद्यमी और पर्यटन के बारे में शिक्षा दी जा रही हैं। इस शिक्षा के लिए पुरानी पाठ्यपुस्तकों की जगह दुनिया के उद्योगों से जुड़कर बच्चों को उसकी जानकारी दी जा रही है। वहीं मुंबई में नाज़रिया और लाइटहाउस जैसे कार्यक्रमों में छात्र सीख रहे हैंं। इसमें सिखाया जा रहा है कि किस प्रकार अपनी कहानियाँ सुनाने के लिए नए ज़माने की मीडिया तकनीक का इस्तेमाल करें। इसके बाद पुणे में माइक्रोलीप्स के छात्र अनुकूल शिक्षण ऐप्स और ट्यूटर्स का उपयोग करके सीख रहे हैं, जो एक बेहद व्यक्तिगत अनुभव प्रदान कर रहे हैं।



इस तरह के कई कार्यक्रम देश भर में हज़ारों बच्चों को उच्च शिक्षण प्रदान कर रहे हैं, जो पिछले कुछ सालों में शुरू किए गए हैं। हालाँकि, हमें ऐसे मॉडल्स को बढ़ाने की आवश्यकता है, ताकि भारत को तेज़ी से आगे बढ़ने में मदद मिल सकें। इसके लिए सरकार को आगे आना होगा। ये सार्वजनिक और निजी भागीदारी के माध्यम से हमारे पास लाखों भारतीय बच्चों के लिए स्कूल को एक नया रूप देने का सुनहरा अवसर है। अगर ऐसे मॉडल्स को सरकार के माध्यम से विकसित किया जाएगा, तो इसका फायदा बाकी व्यवस्था को मिल पाएगा। इससे शिक्षकों और स्कूल प्रमुखों को सीखने और बेहतर बनने में मदद मिलेगी। अगर हम ऐसा कर सकेंए तो भारत की सतत समृद्धि की परिकल्पना बहुत दूर नहीं लगेगी।



(संदीप राय द सर्कल के संस्थापक हैं, यह संगठन निम्न आय वाले लोगों को दोबारा से शिक्षित करने के लिए काम कर रहा है)

Loving Newspoint? Download the app now