नई दिल्ली, 22 मई . हर साल 22 मई को विश्व प्री-एक्लेम्पसिया दिवस के रूप में मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य गर्भावस्था के दौरान होने वाली एक गंभीर अवस्था प्री-एक्लेम्पसिया के प्रति जागरूकता फैलाना है. इसी कड़ी में समाचार एजेंसी ने नोएडा स्थित सीएचसी भंगेल की सीनियर मेडिकल ऑफिसर डॉ. मीरा पाठक से विशेष बातचीत की. डॉ. पाठक ने प्री-एक्लेम्पसिया के लक्षण, कारण और बचाव के उपाय बताए.
डॉ. पाठक ने बताया कि प्री-एक्लेम्पसिया एक प्रेगनेंसी से जुड़ा डिसऑर्डर है जो लगभग पांच से आठ प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में देखने को मिलता है. इसे साइलेंट किलर भी कहा जाता है क्योंकि इसके लक्षण बहुत सूक्ष्म होते हैं और तब तक सामने नहीं आते जब तक जानलेवा स्थिति न बन जाए. उन्होंने कहा कि आमतौर पर प्रेगनेंसी के 20 हफ्ते के बाद अगर महिला का ब्लड प्रेशर 140/90 से ऊपर चला जाता है, शरीर में सूजन आ जाती है और यूरिन में प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है, तो इसे प्री-एक्लेम्पसिया माना जाता है. इन तीनों में से कोई भी दो लक्षण मौजूद हों, तो तत्काल सतर्कता जरूरी है.
उन्होंने बताया कि प्री-एक्लेम्पसिया का प्रमुख कारण प्लेसेंटा में होने वाली असामान्यता होती है. इसके जोखिम कारकों में कम उम्र (18 वर्ष से कम), अधिक उम्र (40 वर्ष से अधिक), पहली प्रेगनेंसी, पहले से हाईपरटेंशन, हार्ट, लंग्स, डायबिटीज या थायरॉइड जैसी बीमारियां, पहले की प्रेगनेंसी में प्री-एक्लेम्पसिया होना, ट्विन या मोलर प्रेगनेंसी, और अधिक वजन शामिल हैं.
डायग्नोसिस के बारे में बात करते हुए डॉ. पाठक ने बताया कि अधिकतर महिलाओं में कोई विशेष लक्षण नहीं होते, लेकिन नियमित जांच के दौरान हाई बीपी (140/90 या उससे ऊपर) पाया जाता है. इसके अन्य लक्षणों में सिरदर्द, धुंधला या दोहरी दृष्टि, हाथ-पैर में सूजन, पेट के ऊपरी हिस्से में दर्द, उल्टी, एक महीने में चार किलोग्राम से अधिक वजन बढ़ना, पेशाब में झाग या मात्रा में कमी शामिल हैं. गंभीर मामलों में मरीज को दौरे (फिट्स) आ सकते हैं या वह कोमा में जा सकती है.
प्री-एक्लेम्पसिया की जटिलताओं की बात करें तो डॉ. पाठक ने बताया कि अनियंत्रित बीपी से ब्रेन स्ट्रोक, दौरे, हेल्प (एचईएलएलपी) सिंड्रोम (लीवर पर असर, ब्लीडिंग टेंडेंसी बढ़ना, प्लेटलेट काउंट घटना), हार्ट फेल्योर, किडनी फेल्योर और कोमा तक की स्थिति हो सकती है. भ्रूण के लिए यह स्थिति और भी खतरनाक हो सकती है – जैसे मिसकैरेज, गर्भ में बच्चे की मृत्यु, आईयूजीआर (अंतर्गर्भाशयी विकास मंदता), अमनियोटिक फ्लूइड की कमी और प्रीमैच्योर डिलीवरी.
उन्होंने बताया कि इस स्थिति का उपचार मुख्यतः ब्लड प्रेशर मॉनिटरिंग और प्रोटीन की जांच से शुरू होता है. साथ ही जीवनशैली में बदलाव जैसे मॉर्निंग वॉक, व्यायाम, योगा, तनाव कम करने से लाभ होता है. प्रोसेस्ड फूड, चीनी, नमक और तैलीय भोजन से परहेज की सलाह दी जाती है. आवश्यकता अनुसार ब्लड प्रेशर कंट्रोल की दवाएं भी दी जाती हैं. लेकिन इसका डेफिनिटिव ट्रीटमेंट डिलीवरी ही होती है. यदि महिला की स्थिति स्थिर है और कोई ऑर्गन डैमेज नहीं है तो प्रेगनेंसी को 37 हफ्तों तक सुरक्षित ले जाया जाता है और फिर डिलीवरी करवाई जाती है, चाहे वह नार्मल हो या सीजेरियन. लेकिन यदि मरीज की हालत बिगड़ती है, ब्लड प्रेशर कंट्रोल नहीं होता, ऑर्गन्स पर प्रभाव दिखने लगता है या मरीज को दौरे आने लगते हैं तो डॉक्टर मां की जान बचाने के लिए तुरंत प्रीमैच्योर डिलीवरी करते हैं.
डॉ. पाठक ने कहा कि कभी-कभी प्री-एक्लेम्पसिया की स्थिति डिलीवरी के बाद भी उत्पन्न हो सकती है. सामान्यतः डिलीवरी के 48 घंटे के भीतर बीपी बढ़ सकता है और यह स्थिति छह हफ्ते तक बनी रह सकती है. ऐसे मामलों में भविष्य में हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी होने का खतरा बना रहता है.
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पीएसके/एकेजे
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