नई दिल्ली: कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, एआई) का दुरुपयोग कृत्रिम (आर्टिफिशियल) साक्ष्य तैयार करने में होने लगा है। साक्ष्य आधारित समूची न्याय प्रणाली के लिए यह एक बड़ी चुनौती है। अमेरिका और पश्चिमी देशों में सामने आ रही घटनाएं भारत के लिए भी चिंताजनक हैं। एआई का दुरुपयोग कर झूठे कृत्रिम डाक्यूमेंट्स और कृत्रिम साइटेशन (विधिक उद्धरण) गढ़ कर न्यायालय को भ्रमित करने की घटनाएं बढ़ गई हैं। पश्चिम में यह फर्जीवाड़ा तेजी से चलन में आया है। किंतु लाखों केस और अनगिनत तारीखों के बोझ तले दबी भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए यह चुनौती अन्य देशों की तुलना में कहीं बड़ी है। एआई निर्मित कृत्रिम साक्ष्य से निबटने की नई चुनौती ट्रायल कोर्ट पर अतिरिक्त बोझ डालती है।
एआई के चलते ले सकता था गलत निर्णय
स्थिति की गंभीरता का अनुमान कैलिफोर्निया डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के एक सीनियर जज की टिप्पणी से लगाया जा सकता है। जज माइकल आर. विल्नर ने छह मई को दिए अपने एक आदेश में लिखा कि 'वादी द्वारा एआई निर्मित कृत्रिम साइटेशन प्रस्तुत कर मुझे भ्रमित करने का प्रयास किया गया। इससे मैं लगभग भ्रमित हो गया था और गलत निर्णय ले सकता था। यह मेरे लिए एक भयावह अनुभव था।' लेसी विरुद्ध स्टेट फार्म नामक इस केस में (स्रोत : यूएस डिस्ट्रिक्ट कोर्ट फॉर द सेंट्रल डिस्ट्रिक्ट ऑफ कैलिफोर्निया) अमेरिका की बड़ी लॉ फर्म्स को एआई (गूगल के जैमिनी व अन्य टूल्स) से तैयार किए गए कृत्रिम और झूठे साक्ष्य प्रस्तुत करने का दोषी पाया गया। उन पर 31,100 डॉलर (लगभग 26 लाख रुपए) का अर्थदंड लगाया गया है।
यह चुनौती विकट रूप ले सकती है
जज विल्नर ने चेतावनी देते हुए लिखा है कि 'इस प्रवृत्ति का सशक्त प्रतिरोध आवश्यक है, ताकि लोग ऐसा करने से डरें।' अमेरिकी जज की स्वीकारोक्ति व्यापक चुनौती का एक संकेत मात्र है। यह शुरुआत है, एआई में आगे बहुत कुछ होना शेष है। सदुपयोग के साथ ही दुरुपयोग भी होगा। अमेरिका के प्रतिष्ठित मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के तकनीकी विश्लेषक जेम्स ओ'डोनेल का आकलन कहता है कि 'यह चुनौती विकट रूप ले सकती है।'
जज और एडवोकेट की सजगता बेहद जरूरीविल्नर चेताते हैं कि 'आज ऐसे प्रयास पकड़ में भले ही आ जा रहे हैं, किंतु एआई के विस्तार के साथ यह चुनौती बढ़ती जाएगी। आने वाले समय में एआई से और भी पक्के कृत्रिम साक्ष्य गढ़े जा सकेंगे, जिन्हें पकड़ पाना अत्यंत कठिन होगा।' इस स्थिति में सारा दारोमदार जज और अधिवक्ता की सजगता पर है। चिंता इस बात की है कि इनसे चूक न होने पाए। साक्ष्य पर संदेह होने की स्थिति में विशेषज्ञ से पुष्टि कराने का विकल्प है, किंतु इसके लिए पहले संदेह होना आवश्यक है।
नेशनल जुडीशियल एकेडमी को करने होंगे उपाय
भारत के व्यस्ततम ट्रायल कोर्ट में से एक राजधानी दिल्ली के कड़कड़डूमा डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में तीन दशक से प्रैक्टिस कर रहे अधिवक्ता नरेश कुमार शर्मा ने इस पर कहा कि 'भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए भी निश्चित ही यह बड़ी चुनौती है। यहां पहले से ही बहुत दबाव है। उस पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा।' इस चुनौती के प्रति न्यायपालिका को जागरूक होना होगा। नेशनल जुडीशियल एकेडमी जैसी संस्थाओं और उच्च न्यायालयों को समय रहते जागरूकता और बचाव के उपाय करने होंगे। 'केनन्स ऑफ जुडीशियल एथिक्स' में भी इस विषय को रेखांकित किया जाना चाहिए।
'काउंटर मिसयूज' एआई से बचाव संभव? :
क्या इससे बचने का कोई तकनीकी उपाय है? हो सकता है, किंतु शतप्रतिशत सटीक नहीं। इसलिए 'काउंटर मिसयूज' एआई जैसे उपायों पर निर्भर नहीं हुआ जा सकता है। यह मानवीय विवेक का विकल्प नहीं हो सकते हैं। एआई के दुरुपयोग से निबटने के लिए मानव बुद्धि ही सबसे सटीक समाधान है। आईबीएम ट्रेनिंग मैन्युअल 1979 इस विषय में कहता है कि 'कोई भी कंप्यूटर प्रोग्राम मानवीय सरोकारों के सापेक्ष उत्तरदाई नहीं हो सकता है।' चूक होने पर क्या आप कंप्यूटर को कोर्ट में घसीटेंगे?
एआई के चलते ले सकता था गलत निर्णय
स्थिति की गंभीरता का अनुमान कैलिफोर्निया डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के एक सीनियर जज की टिप्पणी से लगाया जा सकता है। जज माइकल आर. विल्नर ने छह मई को दिए अपने एक आदेश में लिखा कि 'वादी द्वारा एआई निर्मित कृत्रिम साइटेशन प्रस्तुत कर मुझे भ्रमित करने का प्रयास किया गया। इससे मैं लगभग भ्रमित हो गया था और गलत निर्णय ले सकता था। यह मेरे लिए एक भयावह अनुभव था।' लेसी विरुद्ध स्टेट फार्म नामक इस केस में (स्रोत : यूएस डिस्ट्रिक्ट कोर्ट फॉर द सेंट्रल डिस्ट्रिक्ट ऑफ कैलिफोर्निया) अमेरिका की बड़ी लॉ फर्म्स को एआई (गूगल के जैमिनी व अन्य टूल्स) से तैयार किए गए कृत्रिम और झूठे साक्ष्य प्रस्तुत करने का दोषी पाया गया। उन पर 31,100 डॉलर (लगभग 26 लाख रुपए) का अर्थदंड लगाया गया है।
यह चुनौती विकट रूप ले सकती है
जज विल्नर ने चेतावनी देते हुए लिखा है कि 'इस प्रवृत्ति का सशक्त प्रतिरोध आवश्यक है, ताकि लोग ऐसा करने से डरें।' अमेरिकी जज की स्वीकारोक्ति व्यापक चुनौती का एक संकेत मात्र है। यह शुरुआत है, एआई में आगे बहुत कुछ होना शेष है। सदुपयोग के साथ ही दुरुपयोग भी होगा। अमेरिका के प्रतिष्ठित मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के तकनीकी विश्लेषक जेम्स ओ'डोनेल का आकलन कहता है कि 'यह चुनौती विकट रूप ले सकती है।'
जज और एडवोकेट की सजगता बेहद जरूरीविल्नर चेताते हैं कि 'आज ऐसे प्रयास पकड़ में भले ही आ जा रहे हैं, किंतु एआई के विस्तार के साथ यह चुनौती बढ़ती जाएगी। आने वाले समय में एआई से और भी पक्के कृत्रिम साक्ष्य गढ़े जा सकेंगे, जिन्हें पकड़ पाना अत्यंत कठिन होगा।' इस स्थिति में सारा दारोमदार जज और अधिवक्ता की सजगता पर है। चिंता इस बात की है कि इनसे चूक न होने पाए। साक्ष्य पर संदेह होने की स्थिति में विशेषज्ञ से पुष्टि कराने का विकल्प है, किंतु इसके लिए पहले संदेह होना आवश्यक है।
नेशनल जुडीशियल एकेडमी को करने होंगे उपाय
भारत के व्यस्ततम ट्रायल कोर्ट में से एक राजधानी दिल्ली के कड़कड़डूमा डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में तीन दशक से प्रैक्टिस कर रहे अधिवक्ता नरेश कुमार शर्मा ने इस पर कहा कि 'भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए भी निश्चित ही यह बड़ी चुनौती है। यहां पहले से ही बहुत दबाव है। उस पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा।' इस चुनौती के प्रति न्यायपालिका को जागरूक होना होगा। नेशनल जुडीशियल एकेडमी जैसी संस्थाओं और उच्च न्यायालयों को समय रहते जागरूकता और बचाव के उपाय करने होंगे। 'केनन्स ऑफ जुडीशियल एथिक्स' में भी इस विषय को रेखांकित किया जाना चाहिए।
'काउंटर मिसयूज' एआई से बचाव संभव? :
क्या इससे बचने का कोई तकनीकी उपाय है? हो सकता है, किंतु शतप्रतिशत सटीक नहीं। इसलिए 'काउंटर मिसयूज' एआई जैसे उपायों पर निर्भर नहीं हुआ जा सकता है। यह मानवीय विवेक का विकल्प नहीं हो सकते हैं। एआई के दुरुपयोग से निबटने के लिए मानव बुद्धि ही सबसे सटीक समाधान है। आईबीएम ट्रेनिंग मैन्युअल 1979 इस विषय में कहता है कि 'कोई भी कंप्यूटर प्रोग्राम मानवीय सरोकारों के सापेक्ष उत्तरदाई नहीं हो सकता है।' चूक होने पर क्या आप कंप्यूटर को कोर्ट में घसीटेंगे?