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लेख: स्वदेशी जेट इंजन का 4 दशक से हो रहा इंतजार, कावेरी प्रोजेक्ट अब भी अधूरा

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लेखक: मेजर (रि.) अमित बंसल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस स्वतंत्रता दिवस जब लाल किले से भाषण देते हुए आकांक्षा जताई कि भारत को अपना जेट इंजन बनाना चाहिए, तो उसमें 40 साल का दर्द और हताशा भी थे। भारत ने 1986 में बड़े सपने के साथ कावेरी इंजन प्रॉजेक्ट शुरू किया था, लेकिन यह सफल नहीं हो पाया। देश के कई साल बर्बाद हो गए, बहुत पैसा खर्च हुआ और फिर भी सपना अधूरा रहा। अब बदलाव की सूरत दिख रही है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि भारत का नया पांचवीं पीढ़ी का लड़ाकू विमान अपने स्वदेशी इंजन के साथ आएगा। इसके लिए फ्रांस की कंपनी Safran के साथ मिलकर इंजन बनाने की योजना है।



बढ़ता गया खर्च: किसी भी विमान का सबसे अहम हिस्सा होता है जेट इंजन। भारत ने कावेरी प्रॉजेक्ट के रूप में इसमें जो कोशिश की थी, उसे 1996 तक पूरा हो जाना चाहिए था। लेकिन समय के साथ इसका लक्ष्य बदलता गया। इस दौरान खर्च भी बढ़ा। 1986 में इसके लिए 382 करोड़ रुपये अलॉट किए गए थे। 2004 तक यह बढ़कर 1300 करोड़ और 2014 तक 2000 करोड़ रुपये के पार हो गया।



सुरक्षा को चोट: साल 2016 में तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने संसद में बताया था कि इस प्रॉजेक्ट पर कुल 2,839 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। अब माना जा रहा है कि यह आंकड़ा तीन हजार करोड़ के पार है। DRDO और गैस टर्बाइन रिसर्च इस्टैब्लिशमेंट (GTRE) ने कई बरसों तक कड़ी मेहनत की है। इसके बाद भी देश अपना फाइटर जेट इंजन नहीं बना सका है। इससे देश की सुरक्षा को भी चोट पहुंची है।



अनुभव और संसाधन नहीं: इस प्रॉजेक्ट की नाकामी के पीछे कई कारण हैं। जब GTRE को एडवांस्ड जेट इंजन बनाने का काम दिया गया, तब उसके पास बहुत कम अनुभव था। 1977 में उसने GTX37-14U टर्बोजेट जरूर बनाया था, लेकिन वह सिर्फ प्रोटोटाइप था। देश में अच्छी टेस्टिंग सुविधाएं न होने से काम बाधित हुए। GTRE के पास संसाधनों की भी कमी थी।



मदद में देरी: GTRE और DRDO के वरिष्ठ अधिकारियों को अपनी सीमित क्षमता का एहसास था, लेकिन शुरुआती दौर में न तो विदेशी तकनीक लाने की कोशिश की गई और न ही अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर ध्यान दिया गया। 22 साल की नाकाम कोशिशों और जनता के डेढ़ हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बाद, 2008 में फ्रांस की कंपनी Snecma (अब Safran) से तकनीकी मदद मांगी गई।



सरकारी लेटलतीफी: इसके बाद भी काम आसान नहीं हुआ, क्योंकि ब्यूरोक्रेसी आड़े आ गई। समझौते पर साइन होना दो साल रुका रहा। हकीकत में फ्रांसीसी कंपनी के साथ सहयोग 2016 में जाकर शुरू हुआ। इसके अलावा, भारत के लाइसेंस राज ने निजी क्षेत्र को आने से रोका, जिससे इंफ्रा डिवेलपमेंट में देरी हुई। कुल मिलाकर साढ़े तीन दशक बाद, 2020 में कहीं जाकर प्राइवेट पार्टनरशिप शुरू हो पाई।



बदलती तकनीक: कावेरी प्रॉजेक्ट के तहत शुरू में तेजस फाइटर जेट के लिए इंजन बनाया जा रहा था। तेजस भी तब विकसित हो रहा था। जैसे-जैसे इसका डिजाइन बदला, इंजन की जरूरत भी बदलती गई। फिर वायुसेना ने बदलती तकनीक के अनुरूप इंजन में कई और खूबियों की मांग भी कर दी। प्रॉजेक्ट इन लक्ष्यों को पा नहीं सका। GTRE ने अपना फोकस इंजन के नए वेरिएंट्स पर लगाया। इनका इस्तेमाल भविष्य के एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट, नेवी और स्वदेशी मानव रहित सिस्टम्स के लिए करने की योजना है।



दूसरों पर निर्भरता: अत्याधुनिक इंजन बनाने के लिए सुपर अलॉय और खास तरह की सामग्री की जरूरत होती है। DRDO और GTRE के पास इसका पर्याप्त अनुभव नहीं था। एक तो सरकार की सुस्ती और फिर 1998 में परमाणु परीक्षण के बाद लगे प्रतिबंधों की वजह से इन सामग्रियों को बाहर से मंगाना मुश्किल हो गया। इंजन की टेस्टिंग भी बड़ी चुनौती थी, क्योंकि भारत के पास न तो हाई-एल्टिट्यूड टेस्टबेड्स थे, न विंड टनल्स, और न ही स्ट्रेस-टेस्टिंग लैब्स। इनको समय के साथ बनाया भी नहीं गया। आज भी भारत को इंजन टेस्टिंग के लिए रूस और दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है।



राजनीतिक सुस्ती: 1989 से 2004 के बीच भारत की राजनीतिक अस्थिरता से भी प्रॉजेक्ट पर असर पड़ा। स्थिरता आई तो भी सरकारी लापरवाही बनी रही। इस मसले को कभी प्राथमिकता नहीं दी गई। भारत चारों तरफ से दुश्मनों से घिरा हुआ है, उसे राष्ट्रीय सुरक्षा को सबसे गंभीर मुद्दा मानना चाहिए था। लेकिन राजनीति की सुस्ती और नौकरशाही की जकड़ ने प्रगति को रोक दिया। कावेरी प्रॉजेक्ट की कहानी कई सबक देती है। आत्मनिर्भरता, रणनीतिक बढ़त, लागत की बचत और वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए भारत को अपना जेट इंजन बनाना ही होगा।



नई शुरुआत का समय: भारत में निजी कंपनियों की भागीदारी शुरू हो चुकी है, लेकिन इतना काफी नहीं। देश को राष्ट्रीय इच्छाशक्ति चाहिए। शैक्षणिक संस्थानों, उद्योग जगत और सरकार के बीच मजबूत साझेदारी की जरूरत है। महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर डिवेलप करना होगा। समय आ गया है कि भारत अपनी रक्षा पर ज्यादा खर्च करे। कावेरी प्रॉजेक्ट को असफलता नहीं, नई शुरुआत की तरह देखना चाहिए। वर्ल्ड क्लास रिसर्च को बढ़ावा देकर, एडवांस्ड मैन्युफैक्चरिंग में निवेश और हर स्तर पर सहयोग बढ़ाकर भारत तकनीकी आत्मनिर्भरता हासिल कर सकता है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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